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रामायण wwwwwwrrrrrrrrrrrrrrrr
अपने सिर का ताज मान, निज मुख से शब्द सूना दे तू । हंस करके मुख से कहो जरा, मम हृदय कमल खिला दे तू ॥ जो कुछ इच्छा तेरी सो कर, तू तीन खंड की रानी है। दासो का दास बन रहूँ तेरा, बस यही मेरे मनमानी है।।
दोहा सिया न ऊपर को लखे, राम चरण में ध्यान । उत्तर कुछ देती नहीं, संमझे पशु समान । ॐचे स्वर से रो रही, करे अति विलाप । इसी बात का हो रहा, रावण को संताप ।।
दोहा (रावण) स्थानी होकर के सिया, क्यो बनती अनजान ।
देखो तो वह सामने, लंका कोट महान् ।। सुवर्णमयी लंका सीता, वह देख सामने आती है। शुभ हवा देख यह देव रमण से, मस्त सुगंधि लाती है। तेरा ऊंचे स्वर से रोना यह, गौरव मेरा घटाता है । सुन लोग कहेंगे क्या रोनी, सूरत दशकंधर लाता है ।। फिर आती है कुछ शर्म मुझे, कैसे महलो मे ले जाऊं। तब सभी रानियां पूछेगी, तो क्या मै उनको बतलाऊ॥ सब रुदन छोड़ कर खुश चेहरा, हर बार तुझे समझाऊ मैं । कुछ तो बोलो क्या चाहती हो, सो ही सेवा मे लाऊ मै ॥
दोहा सीता के चरणो में लगा, धरने मुकुट नरेश । जनक सुता पीछे हटी, करके रोप विशेप ।