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श्री स्कन्धकाचार्य चरित्र
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क्षपक श्रेणी चढ़े मुनि, समदम खम हृदय लाते है । अन्त केवली बने बन्ध तज, अक्षय मोक्ष पद पाते है ।। पिल रहा एक घानी मे क्रम से, और एक तैयार खड़ा । कर दिया मात बूचड़ खाना, बह रहा खून कही हाड़ें पड़ा। उस यन्त्र से सानो निकली, एक रक्त मेंदी दिखलाती थी। गृध पक्षी घूम रहे नभ में, और चीले झपट लगातों थीं। जब पील दिये सब ही चेले, एक छोटा शिष्य रहा वाकी। था होनहार गुणवानं करणी, मानो जैसी थी हीरा की ।। जब उसे पीलने के हेतु, पालक ने हाथ बढ़ाया है। तब उसी समय खंधक ने, पालक को यो वचन सुनाया है ।।
दोहा (स्कन्धकाचार्य) सन्तोष तुझे आया नही, अय पालक सुन बात ।
लघु शिष्य की न दिखा. मुझे सामने घात ।। ५ घात दिखा मत मुझको इसकी, कहना मान हमारा । पाला इसको प्रमभाव से, ज्ञान सार दिया सारा ।। शत्र यदि हूं तो मै हूं, न इसने कुछ तेरा बिगाड़ा। तैयार खडा हू पील यन्त्र मे, पहिले जिस्म हमारा ॥
पील पहिले बस मुझको, द्वष जिससे है तुझको । आपको समझाता हूं, यह दुख मतं दिखला मुझको,
बस यही बात चाहता हूं।
दोहा (सुगुप्त) मुनिराज के सुन वचन, बोला पालक बाद । तन मन खुश सब हो गया, लगा आन अब स्वाद ।।