________________
शूर्पणखा
३७३
aumann
पद चिह्न देखती जाय कभी, चहुं ओर को दृष्टि धुमाती है । जब नजर पड़े वह राम लखन, तब ऐसा सोचती जाती है ।। ___ क्या यह रवि चन्द्रमा है, या दो स्वर्गो के इन्द्र हैं। क्या साक्षात् है नल कुबेर, अति रूप कला मे सुन्दर है ।।
दोहा काम बाण जिसको लगे, सुध-बुध दे विसराय । ' शोक हुआ काफूर सब, बसे राम दिल मांय ॥ लगी देख छिप वृक्षो में, काम बसा रग-रग अन्दर । लाज शर्म उड़ गई हुई, बेशर्म जाति जैसे बन्दर ।। मध्य भाग में दोनो के, मानो हो रहा उजाला है । वृक्षो पर यौवन बरसा, रंग हरा बहुत कुछ काला है ।
दोहा ( शूर्पणखा मन मे ) रत्नों के पुतले बने, क्रान्ति रवि समान ।
क्या सब दुनिया का मिला, रूप इन्हो को आन ॥ क्या बिजली नक्षत्र व्योम से, बैठे टूट सितारे है। रम गये हाड और मिंजी क्या, रग रग मे फूल हजारे है । है निश्चय पुण्यवान् किसी, यह भूप के राजदुलारे है। और सभी कुछ हेच मुझे, बस लगते यही प्यारे है।
दोहा पलक नहीं झपके जरा, देख रही हर बार ।
दृष्टिगोचर फिर हुई, उसी जगह सिया नार ।। देख हुई हैरान कहाँ से, यह चन्द्रमा चढ़ आया । शरद् ऋतु मे प्रातःकाल, जैसेकि सूर्य निकल आया ।। इन्द्राणी से अधिक रूप, फिर मै पसन्द कब आऊगी। रूप रोशनी और बढ़ा कर, पास इन्ही के जाऊंगी।