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रामायण wwwrrrrrre
चन्द्र रहे नित्य बारहवाँ जी, अष्टम सूर्य जान । बीज नाश कुल का होवे जी, दुर्गति का महमान ॥६॥ शीलवती सीता सती जी, वसुधा मे विख्यात । गौरव तजे न अपना जी, बेशक होवे तन घात ।।७।।
दोहा इधर सिया पूरी सती, धर्मन अति गुणवान् ।
गुण जब रावण ने सुना, लगा काम का बागण ।। रग रग मे विष फैल गया, कुमति के चक्कर मे श्राकर । पुष्पक विमान मे बैठ गया, दशकन्धर जल्दी से जाकर ॥ होनी बस कामांध बना, रावण बन को चल धाया है। पास सिया के देख राम, पीछे विमान टिकाया है ।
दोहा (रावण) खड़ा खड़ा नृप सोचता, है यह अद्भुत रूप ।
तीन लोक मे भी नहीं, ऐसा रूप अनूप ।। नहीं पिछाडी हटे नैन, चेहरे पर रूप बरसता है । जैसे चातक मेघ बिना, ऐसे मन मेरा तरसता हैं। या जैसे बिन पानी के कहीं, मछली का नहीं गुजारा है। बिना मिले यह पुण्य समूह, मेरा न कहीं सहारा है ।। अद्भुत रूप अनूप चिह्न, क्या तन पर पड़े सभी आला । मानिन्द मोर की गर्दन के, कुदरत ने है सुरमा डाला ॥ जो भगिनी ने बतलाया था, उससे भी बढ़कर पाई है। सचमुच बनरूपी रजनी मे, चन्द्रमा बन कर आई है। किन्तु आज क्या हुआ मुझे, नही पैर अगाड़ी बढ़ता है। मानिन्द सिंह के आज सामने, राम नजर क्यो पड़ता है ।।