Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 430
________________ ३६० रामायण आगे प्रबलसिंह बैठा, पीछे हठ गिरू समुद्र में। खैच लिया मन सीता ने, बस सुरू खड़ा बन अन्दर में । सिर धुन कर विद्या बोली, राजन् क्या पाप कमाता है। दूर करो यह दुष्ट ध्यान, यदि सुख सामग्री चाहता है ।। दोहा (अवलोकिनी देवी) सतियों में है शिरोमणी, रामचन्द्र की नार । शील रत्न खंडे नहीं, करे जिस्म की छार ॥ यदि कोई चाहे मस्तक से, मंदर गिरि तोड़ गिरादूंगा। प्रमादी बनकर प्रबलसिंह की, मूछे पकड़ हिलादूगा । अन्तक न आवे पास कभी, चाहे काल कूट विष खालूगा । और करू हाजमा लोहे के, दांतों से चने चबालूगा । शायद किसी के द्वारा यह, अनहोनी भी कर सकता है पर स्वयं इन्द्र भी सीता को, आकर नहीं फुसला सकता है। गाना नं. ५६ (अवलोकिनी ) मान ले कहना हमारा, मोड़ दिल इस पाप से । है बुरा परिणाम हित करके, कहूं मैं आपसे ।।१।। है पवित्र आत्मा, पूरी न छोड़े धर्म को । क्यो बनाता भस्म, ऋद्धि की जला इस आग से ॥२॥ आशिविष तेरे लिये, है लंका को बारूद सम । राख कर डालेगी सबको, यह जरा से शाप से ॥३॥ सूर्यवंशी की वधू, मानिंद व्याधि के तुझे। कर किनारा तज बदी, बच नरक के संताप से ॥४॥ दोहा (रावण) मन मे है सीता बसी, मुझे न सूझे और । पटरानी इसको करू, चाहे मिले दुःख घोर ।।

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