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रणभूमि
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काम राग मे मस्त हुवे, मगो की डार गोली खाते। चक्षु इन्द्रिय के बस पतग, दीपक की लौ मे मर जाते ॥ एक एक इन्द्रिय ने इनको, दुःख सागर मे गेर दिया। यहा आन विचार.रावण को. पाचो विषयो ने घेर लिया ।
दोहा वीतराग उपदेश मे, धर्म चार प्रकार ।
दान शील तप भावना, यही धर्म का सार ॥ चित्त वित्त अनुसार दान भी, कई विध से बतलाते है । निर्मल आत्म बने तभी जब, संयम ध्यान लगाते है ।। शुद्ध भावना भाने वाले, जीव अतुल सुख पाते है। पर शील पालना अति कठिन, यहां कायर जन गिर जाते है ।।
गाना न० ५८
( ब्रह्मचर्य महिमा) जीव रे तू शील रंग धर अंग। चाकी सभी कुरंग है रे, यही करारा रंग ।। टेर।। अग्नि भी. शीतल बने रे, सर्प होय फलमाल । शेर हिरन मानिन्द बने रे, अन्धपना लहे व्याल ||१|| पर्वत सम मार्ग बने जी, विष भी अमत होय । विघ्न यहां उत्सव बने जी, दुर्जन सज्जन होय ॥२॥ सागर छोटा सर बने जी, अटवी निज घर वार । मुश्किल सब आसान हो जी, शील अति सुखकार ॥३॥ जो कुशील के वश पड़े जी, तब उपजे मोहग । शुभ करनी को तिलाञ्जलि जी, तप जप जावे भाग ॥४॥ अपयश की डौडी पीटे जी, कुल के लागे दाग । द्वार दिखावे नर्क का जी, फूट जाये सब भाग ॥५॥