________________
शूर्पणखा
vavvavan
छन्द लड़-लड़ के दोनो मर गये, खोटे व्यसन का फल मिला। रह गई बन मे अकेली, कांपता मेरा दिला ॥ फिरते-फिरते थक गई, रस्ता न कोई इन्सान है। धड़कता है मन मेरा, किन्तु न निकली जान है ।। इस समय मेरा सहायक, धर्म या प्रभु आप है। शान्ति मुझको मिल गई, बस कट गये संताप है ॥ कष्ट मेरा शील के प्रताप, से सब टल गया। इस जन्म में बस आपसा, भर्तार मुझको मिल गया ।
गाना नम्बर ५७ (रामचन्द्र और शूरपणखां का सम्मिलित गाना) शूर्पणखा--कल खुश्क था यह जंगल, अव है महकार छाई ।
चमकार पंचवटी मे, क्या रोशनी फैलाई ॥१॥ तुम किस के हो शाहजादे, कब से यहाँ पे आये।
दोनो ही खूबसूरत चेहरे, की क्या गोलाई ॥ राम--अयुध्यापुरी सुनी है, दशरथ के हम दलारे ।
सीता यह राजरानी, लक्ष्मण यह मेरा भाई ॥३॥ तेरह है साल गुजरे, फिरते है हम वनो मे ।
रहती है तू कहाँ पर, यहाँ पे किधर से आई ।।४।। शूर्पणखॉ-क्या तुम न जानते हो, राजा की हूं मैं पुत्री।
मेरी रूप रोशनी ने, खल्कत मे धूम पाई ।।५।। राम-फिरती है क्यो अवारा, जगल मे इस तरह तू । __कामन नादान तेरे, दिल मे यह क्या समाई ।।६।। शूर्पणखा-जादू भरी यह सूरत, दिल मे बसी है मेरे ।
अब आपके है कर मे, दुख दर्द की दवाई ॥७॥