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शूर्पणखा
हाथ कड़े परिवन्द आरसी, चूडा पछेली । गजरा और जड़ाऊँ पहुची, मेंहदी से रची हथेली ।। पहिने सब छाप छल्ले, अंगूठी ज्यूं मूगफली ।
थी पुत्र विरहनी पर, काम बस नीत चली ।। ।' . .
बदल फूली नहीं समाती तन में, खुश हो रही घूम उस बन मे। जैसे बिजली चमके घन में, फिरे अकेली नार ।। फिरे० ॥शा कडे छड़े रमझोल, मेहदी बिछुवे और मोर । ठुमक ठुमक चाले गहणे, सारे करते शोर ।। पाँवो मे पायजेब सोहे, घूघर वाली चहुं ओर। दुबक छपक आई जैसे, पाड़ लाने चौर ।।
बदल '. , रही घूम विषय के बल में, गन्धहस्ती जैसे दल में। घड़ रही बनावट मन मे, करे इधर उधर सचार ॥फिरे० ॥४॥
दोहा देख हाल यह राम ने. मन मे किया विचार । । “किस कारण उद्यान से, फिर अकेली नार ।।
. शूर्पणखा को इस तरह, बोल उठे श्रीराम । । इस दुर्गम उद्यान मे, कौन तुम्हारा काम ।। कहो वृत्तान्त अपना सारा, किस कारण बन में आई हो। और इधर-उधर क्या देख रही, कुछ भय न जरा मन लाई हो । क्या कही चौला है गिरफ्तार, जिसकी तुम फिरो तलाशी मे । क्या आई पैदल इस वन मे, या बैठ चिमान आकाशी मे ॥