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रामायण
दोहा रूप देखकर शूर्पणखा, हुई विषय में लीन ।
इश्क बीच अन्धी हुई, न कुछ रहा अधीन ।। रूप परिवर्तिनी विद्या, अब शूर्पणखां ने सुमरी है। ___ बनी नई नवेली साक्षात् , जैसे कुबेर की कुमरी है ।
तरुण अवस्था मोहिनी मूर्त, चलता पक्षी देख गिरे। फिर गई सामने रामचन्द्र के, इधर फिर कभी उधर फिरे ।।
काम राग में अन्ध हो, अद्भुत बनी अनूप । ऐसी व्यक्ति को कहाँ, आत्म गौरव स्वरूप ।।
गाना नं० ५६ (शूर्पणखा का शृङ्गार वर्णन) फिरे हंस गति से कामन, दामन कर सोलह श्रृंगार ॥टेर।। मंजन कर बनाय अंजन, नेत्रो में लिया डाल । मस्तक ऊपर गोल बिन्दी, मोती से पिरोये बाल ।। चड़ामणि फूल शीश, गले में हीरो की माल । नाक मे बुलाक शोभे, मोती जड़ी साडी लाल ||
बदल गहनो की झंकार घणी है, बेशर में हीरों की कनी है। शोभा अति अधिक बनी है, नखरे का न पार ॥फिरे० ॥१॥ चांद और जड़ाऊँ बुजनी, कानो मे सुनहरी बाले । कौड शीस बिम्बोष्ठी, नाथ माहीं मोती डाले ॥ मृगानयनी सेवक ठोडी; जुल्फ जैसे नाग काले । गति है मराल हथिनी मस्त, जैसी चाल चाले ।
बदल चन्द्र बदनी कोयल बैनी, पहनी साड़ी ऊपर चोली। , रसना पतली मीठी बोली, इन्द्राणी अनुहार ॥ फिरे०॥