________________
श्री स्कन्धकाचार्य चरित्र
३५६
ज्ञानमय हूँ मुझ में अब यह. कर्ममल कुछ भी नहीं। ध्यान धरके शुक्ल सच्चिदानन्द, अमूर्त देख ली ॥५॥
दोहा (लघु शिष्य ) इस दिन के ही वास्ते, शीश मुडाया आन । वन्ध अनादि तोड़कर, लेऊं मोक्ष निर्वाण ॥
अवश्यमेव एक दिन छुटे, यह जिस्म साथ नहीं जावेगा । अनमोल समय यह मिला आन, फिर नही पता कब आवेगा। क्षपक श्रेणी चढू अभी, तन से मोह जाल हटाया है। जिस दिन के लिये भटकता था, बस आज वही दिन आया है।
दोहा (सुगुप्त ) ज्ञान दर्श चारित्र सम, और शान्त रस लीन ।
सम दम खम शुभ भाव से, योग हुए शुद्ध तीन । इधर चढ़े परिणाम, उधर दुष्टो ने चढ़ाया घानी में। पाकर केवल ज्ञान पहुंच गये, अक्षय राजधानी मे ॥ सर्वज्ञ देव ने जो भाषा, कहीं आया फर्क न आना है। हाल देख खन्दक ऋपि के, झट क्रोध वदन भर आया है ।।
दोहा (सुगुप्त) आयु का बल घट गया, कर न सके कुछ और। होनहार का एक दम, पड़ा आन कर जोर ॥
दोहा (स्कन्धकाचार्य) अहो अतुल्य यह पाप है, ऐसा अनर्थ घोर। नदी खून की वह गई, जरा मचा न शोर ।।