Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 410
________________ रामायण ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ - ~ - - - - - - - - - - - ~ - - - शूर्पणखा दोहा "इधर अनुज से बात कर, हा बैठे होशियारं । शूर्पणखा ने महल मे, मन मे किया विचार ।। विद्या सिद्धि राजकुंवर की, जल्दी होने वाली है। हृदय कमल, खिला ऐसे, जैसे फूलो की डाली है। भोजन पान सभी सामग्री, तुरताफुर्त बनवाई है। खुशी खुशी लेकर सामग्री, दण्डकारण्य मे आई है ।। दोहा कौचरवा के तीर जब, आई गंधूर पास । नजर उठा देखन लगी, दिल मे अति हुलास ।। वंश जाल है कटा हुआ, शंबुक पुत्र का शीश पड़ा । वह दृश्य भयानक देखत ही, हुवा माता को अफसोस बड़ा॥ लगी देखने अन्दर को तो, शीश बिना धड़ लटक रहा। क्या कारण यह आज हुआ, कर रही सोच मन भटक रहा । कर रुदन फाड़ रही अम्बर को, नेनों से नीर है बरस रहा। मूर्छित होकर गिरी धरण, हृदय अन्दर से तड़प रहा ।। शूर्पणखा होकर सचेत, पुत्र को शीश चूमती है। मच्छित हो कभी गिरे धरण, कभी धड़ की तरफ घूमती है ।। बिना नीर मछली जैसे यो, तड़प रही खर की रानी। और बोली अय बेटा तेरी, किस तरह गई यह जिंदगानी ॥ अय बेटा तेरी खातिर में, सब सामग्री लाई थी। इस बनखंड में शंबुक बेटा, मैं तेरी खातिर आई थी। बाकी है नाराज सभी, इस कारण कोई न आया है। छैया मैया को सबर कहाँ, मैने तो तुझको जाया है ।।

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