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शंबूक
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शम्बूक
दाहा पाताल लक का अधिपति, खर नामक भूपाल । शूर्पणखा' रानी अति, सुन्दर रूप रसाल ।। राजकुमार थे दो जिसके, शम्बूक और था सुनन्दन । युवावस्था थी जिन की, शुभ रूप वर्षे जैसे कुन्दन ॥ सूर्य हास खांडा सांधू, हर घड़ी यही शम्बूक चाहता । नित्य विघ्न डालते माता पिता, यूं नहीं सफल होने पाता ।।
दोहा
एक दिवस हठ मे खड़ा, बोला हो विक्राल । विघ्न यदि देगा कोई, उसका आया काल ॥ उसका आया काल, लगे क्यो सोता शेर जगाने । मारूधर तलवार अक्ल, सारी आ जाय ठिकाने । सोच समझ नहीं करते कायर, अपनी अपनी ताने । विद्या साधन जाय सूर, शबूक न हर गिज माने॥
दोहा विघ्न जो कोई देवेगा, जान अपनी खोवेगा : । दण्ड कारण्य मे जाऊँ, द्वादश वर्ष सात दिन का, साधन प्रारम्भ लगाऊँ।
दोहा सूर्य हास साधन असि, कुंवर के मन उत्साह । होन हार लेकर गई, दण्डक बन के मांह ।।