Book Title: Jain Ramayana Purvarddha
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Bhimsen Shah

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Page 407
________________ विग्रह का बीज ३६७ तेज महान सूर्य समान गंधूर मे लगा चमकने को। लटक रहा था जहां पर खांडा, शम्बूक लगा हर्षने को। दोहा रूप ऋद्धि बुद्धि अति, सेवा भक्ति महान् । होनहार आगे सभी, बन जाते नादान । रूप कहे मै ही मै हू', ऋद्धि कहे मै कहलाती हूँ बुद्धि कहे मै तुम दोनो का, एक ग्रास कर जाती हूं। होनी लगी मुस्कराने, और बोली जव मै आऊँगी। रूप ऋद्धि बुद्धि आदि, कुछ हो सब पर छा जाऊँगी। - - विग्रह का बीज दोहा क्रीड़ा कारण पा गया, फिरता लक्ष्मण वीर । देवयोग आगे बढ़ा, कौचरवा के तीर ।। __ वंश जाल मे पड़ी नजर, सूर्य मानिन्द प्रकाश हुआ । क्या रवि आन बैठा इसमे, लक्ष्मण को ऐसा भास हुआ ।। वंश जाल मे खग अपूर्व, अपनी चमक दिखाता है। देख अनुपम शस्त्र वीर, योद्धा का मन ललचाता है ।। झट हाथ पसार के खा लिया, लक्ष्मण का मन हर्षाया है। अज्ञातपने से परीक्षा कारण, वंश जाल पे बाह्या है । होनी ने अपना काम किया, शंबूक की आशा धरी रही। वह जीव बसा जा परभव मे, सम्पत्ति सब यहाँ पर पड़ी रही ।।

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