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रामायण
गाना नं० ५१ (तर्ज- ) ( कौन कहता है कि जालिम ) सर्वसिद्धी के लिये ब्रह्मचर्य एक प्रधान है ।
सत्य भाषण दूसरा निर्बद्ध मेढी समान है ॥१॥ समभाव और एकाग्रता, निज लक्ष में तल्लीन हो ।
निर्भिकनिरभिमान, और साधन सभी का ज्ञान है ॥२॥ सेवा भक्ति और विनय से, योग्य गुरु की हो कृपा।
एकान्त सेवी मौन ग्राही, अटल श्रद्धा वान है ॥३॥ कार्याकार्य विचारक, और भाव ऊँचे हो सदा ।
गुरु धर्म शास्त्र देव संघ सेवा में जिसका ध्यान है ॥४॥ दान तपजप भावना, शुभ पुण्य का संचय भी हो--
शुकल साधन धर्म ध्यानि, शुद्ध खान अरु पान है ॥५॥ जैसी जिसकी भावना, सिद्धि भी तदनुसार हो। मंत्र का नम्बर बदलने, का भी जिसको भान है ॥
दोहा एकान्त भूमि शुद्धात्मा, जितेन्द्रिय व्रत धार । पांव बांध वह वृक्ष से, नीचे मुख सुविचार ॥ नीचे मुख सुविचार मन्त्र में, अपना ध्यान जमाया था। बारह वर्ष सात दिन का विद्या प्रारम्भ लगाया था । था चहुं और बांसो का बन, जहां पवन अति गुजार करे। पर क्या मजाल है दृष्टि की, अन्दर को जरा पसार करे । शूर्पणखां वहां तीन दिवस के, बाद मे आया करती थी। सुत शंबूक के लिये खाद्यपदार्थ, बन में लाया करती थी। विद्या साधत बीत गये, यहां बारा वर्ष चार दिन है। सिद्धि प्राप्त लगी होने पर, मिले न रत्न पुण्य बिन है।
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