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रामायण
दोहा
खंधक मुनि के पांचसौ, शिष्य अरिदल चूर । शान्त रूप तप संयमी, विद्या में भरपूर ॥ विद्या में भरपूर हुए, एकत्र सम्मति मेलन को । घर नहीं छोड़ा सुनो मुनि, ये खाली पेट भरन को ॥ वह राज्य ऋद्धि सुख तजे, सभी स्व पर उपकार करण धीर वीर गम्भीर बनो, आपत्ति सभी जरन को ॥
दौड
को
प्रचार को जिसने चलना, तो जान हथेली धरना । निश्चय है एक दिन मरना, शान्त रूप हो सहो कष्ट, पर पीछे कदम न धरना ॥ दोहा ( शिष्यमंड ) सभी हम जो पांचसौ, कर्म जंग जुझार ।
तन मन सब तुमको दिया, करो जो हो स्वीकार ॥ करो जो है स्वीकार, आपको जान हथेली धरली है । प्रचार कार्य में जुड़ने को, अब कमर सभी ने कस ली है । जो पड़े कष्ट वह सहन करें, चाहे टूटे नस-नस पसली है । यह जिस्म साथ नहीं जाना, हमने सोच सभी कुछ करली है ।
दौड़
पेट तो खर भी भरले, सूर रणक्षेत्र लड़ते ।
।
उपसर्ग सब ही सहते, जिन आज्ञा पालन मे देवें जान,
यही दिल धरते ||
दोहा
दृढ़ संकल्प सबने किये । खंदकादिक मुनि महान । आज्ञा लेने प्रभु पै गये | करी चरण प्रणाम ||
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