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रामायण
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मैं स्वयं यदि दू दण्ड इसे तो, निन्दा होगी भारी। अधिकार दिया सब मन्त्री को, मति उल्टी यही विचारी॥
दृष्ट का भेद न पाया, भूप अपने घर आया । __ मन्त्री मन आनन्द पाया, आना जाना कर वन्द बाग मे कोल्हू
तुरत लगाया॥ दोहा (सुगुप्त) दुष्ट जनो को साथ ले, पहुँचा मुनियो पास । बोला अब तुमको नहीं, बचने का अवकाश ।।
दोहा (पालक मंत्री) शत्रु जो होवे मेरा, और शत्रु के यार । मारे बिन छोड़ नही, घानी है तैयार ।।
वह दिन करले याद तू, स्कंधक राज कुमार।
पराजित मुझे तूने किया, भरी सभा मंझार ।। भरी सभा मंझार किया, अब साधु बन आया है । प्रचार करण निज धर्म, पांच सौ शिष्य संग लाया है ।। किन्तु अब तू बच नहीं सकता, काल उठा लाया है। अद् भुत ढोंग बना, भद्र लोगो को भाया है।
दौड़ यदि है जान प्यारी, चार है शर्त हमारी।
फेर यहाँ कभी न आवो, कुधर्म त्याग मांगो माफी। मम धर्म ग्रहण कर जावो ।।