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रामायण
सभी नास्तिक वहां बसते, दुष्ट पापी अनाड़ी हैं।' भरे अज्ञान से हृदय, साफ कैसे किये जावे ॥ बहा कर ज्ञान का दरिया, मिथ्या अज्ञान धो दूंगा। सुधारूगा उन्हें सह लू, चाहे महाकष्ट आ जावें ॥ स्वल्प यह लाभ है वहां का, यहां अनमोल जिंदगानी । जिसे हम कह नहीं सकते, वही न कष्ट आ जावे ॥
आत्मा सब बराबर हैं, भेद है सिर्फ कर्मो का । उन्हे सम्यक्त्व आ जावें, यहां चाहे प्राण भी जावे ।। विनय यह सार चरणों मे, आप यदि रुक नहीं सकते। करें प्रचार नर्मी से, कहीं न विघ्न आ जावें॥ न्याय से तो वहां अन्याय, मिथ्या जड़ को खोना है। हटूना मै सचाई से, चाहे पृथ्वी उल्ट जावे ॥ वचन सर्वज्ञ का सुनकर, हमारा दिल धड़कता है । महा पापिष्ठ वह जन हैं, पाप करने में सुख पावें । शुक्ल क्या दोप उनका है, सभी कर्मो के पर्दे है । खुशी हैं हम लिये उपकार के, चाहे सर भी लग जावे ।। जब नास्तिक देश के मध्य गये तो, कप्ट भयानक आने लगे। गन्ध हस्ती गण मे ऐसे मुनि, प्रचार मे कदम बढ़ाने लगे। अन्याय की जड़ को काट-छांट, सद्ज्ञान का नीर बहाने लगे। मिथ्या तम का कर नाश, ज्ञान प्रकाश मुनि फैलाने लगे।
दोहा नास्तिक मत के शिरोमणि, अंध पक्ष में लीन ।
लगे द्वेष से तड़पने, जैसे जल बिन मीन ।। पराजित होकर शास्त्रार्थ मे, अब नीच कर्म पर तुल आये । मुनियो पर कंकर पत्थर फेक, गाली गलौच मुह पर लाये ॥