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निग्रन्थ मुनि
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यो बोले राम कहो भगवन, कारण था कौन उपद्रव का। कृपया यह सब फरमा दीजे, मिट जावे भ्रम सभी दिल का ॥
दोहा कुल भूषण कहे केबली सुनिये सभी स्वरूप ।
पद्मनी नामा नगरी मे, विजय पर्वत भूप ।। अमृत स्वर मतिवन्त दूत, उपयोगां जिसकी नारी थी। और उदित मुदित दो पुत्र जिन्हो की, रूपकला कुछ न्यारी थी। वसुभूति एक मित्र दूत का, उपयोगा पर आशक था। वह जाति का था उच्चवर्ण मिथ्यामत धर्म उपासक था ।
दोहा प्रेमी को कहे प्रमिका, अमत स्वर को मार ।
खटका सब मिट जायगा, भोगें सुख अपार ।। एक दिवस भूप ने दूत काम, करने को कहीं पठाया था। वसुभूति ने मार्ग में अमृत, स्वर परभव पहुंचाया था । फेर अधम ने आकर, उपयोगा को या समझाया है। तू पुत्रो को दे मार बढ़े फिर राग यही मन भाया है। यह लगा पता जब उदित मुदित को, क्रोध वदन मे छाया है। वसुभूति को परभव पहुँचाने, का सब ढंग रचाया है ।।
उदित कुंवर ने एक समय वसुभूति परभव पहुंचाया। मर इषदानल पल्ली मे, वसुभूतिने भील जन्म पाया ॥ वैराग्य भूप को हुआ छोड़, ससार ध्यान तप जप लाया । सब शत्रु मित्र समान मुनिने. तजा क्रोध लालच माया । सग उदित मुदित भी हुवे मुनि, निज आत्म कार्य सारन को। मार्ग मे आ वही भील मिला, मुनिजन को धाया मारन को । तव पल्ली पति ने छुड़वाया, गुण जनमात्र का माना है।