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रामायण
विद्या गुरू वर घोष, फिर लाया हमें नृप पास है। राजा ने फिर परीक्षा लई. दरबार लाकर खास है। बहु पारितोपिक दिया, भूपाल ने सम्मान से। खुश कर दिये गुरु को पिता ने, सार प्रीति दान से ।। फिर पास माता के चले. हम शीश पितु को नाय के। मता और वहनें नगर की, बैठी बहुत वहाँ आय के ।। एक महल पर बैठी दुलारी, नजर उस पे जा पड़ी। हम अनुराग से देखन लगे, सूरत है क्या अद्भुत घड़ी॥
दोहा (कुल भू०) माता को हमने करी, चरणो मे प्रणाम ।
फिर पूछा यह कौन है, कहा मात ने ताम ।। श्रय पुत्र तुम्हारे पीछे से, जन्मी यह राजदुलारी है।
तुम रहते थे गुरुकुल मे यह, एक छोटी बहिन तुम्हारी है । हमने जव सुना बहिन अपनी, मन विरक्त हुआ सब भोगो से । और समझ लिया नहीं बच सकते, दुनियां में ऐसे रोगो से ॥
दोहा राग किया निज वहिन पर, जो नहीं करने योग्य ।
इस कारण हमने तजा, राज पाठ संयोग । यह धार लिया संयम हमने, फिर आत्म ज्ञान अभ्यास किया। महा घोर प्रतिज्ञा धारी थी और कई मास उपवास किया । फिर करते उग्र बिहार इसी नगरी, आ ध्यान लगाया था।
मरने जीने की आशा तज, कायोत्सर्ग ध्यान जमाया था । और पिता धार अनशन पीछे. महा लोचन गरुड़ हुआ सुर वह । जब अवधि ज्ञान से देखा हमको, आने को था गिरी ऊपर वह ।।