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वनमाला
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संकोच माया का किया, देवी ने सब नरतन हुवे । देखे तो क्या श्रीराम लक्ष्मण है, खड़े दर्शन हुवे ।। श्रीराम के चरणो मे पड़ा, अतिवीर्य नृप तत्काल है । बोले क्षमा मुझ को करे, सब आप का धन माल है । कुछ ज्ञात मुझको था नही, हे नाथ तुम ही हो खड़े। अन्याय का फल मिल गया, और धूर भी मम सिर पड़े ॥
दोहा श्री राम कहने लगे, अति वीर्य सुन बात ।
जैसा मुझको भरत है, वैसा तू भी भ्रात । क्षमा किया अपराध सभी, अब आगे जरा विचार करो। तुम भरत भूप से सन्धी करके, निर्भय अपना राज्य करो ॥ अतिवीर्य कहे महाराज सुनो, अब दिल दुनिया से विरक्त हुवा। अब यौवन गया बुढ़ापा है, तप संयम ध्यान मे चित्त हुवा।
चौपाई
राज विजय रथ सुत को दिया। सिंह गुरु पे संयम लिया। तज जंजाल हुए मुनि राज । तप जप किया निज आत्मकाज ॥
दोहा भरत भूप की आन मे, किया विजय रथ राय ।
दारुण दुःख सब दूर कर, झगड़ा दिया मिटाय ।। नृप विजय रथ ने बहन रतीमाला, लक्ष्मण को परणाई । और विजय सुन्दरी भगिनी दूसरी, भरत भूप को है व्याही ॥ बस फेर वहां से चले राम, संग सेना विजय पुरी आई। नृप महीधर ने सम्मान किया, वनमाला मन मे हर्षाई ।।