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रावण दिग्विजय
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NAVPRAANA
इस रोग की मात्र औषधी यह, जिन भाषित ज्ञानामृत पीना। मैत्री भाव की ओर बढ़ो, व्यवहार सहित जब तक जीना ॥ अब करुणा भाव के अकुरे, हृदय में पैदा होने दो। शान्ति प्रेम से राग द्वेष, दुखदायी जड़ को खोने दो ॥ चेतन और अचेतन क्या, सब मे गुण है गुण ग्रहण करो। त्रियोग शुद्ध सब का हितकारी, सादा रहन और सहन करो॥ कायरता तज कर शूर बनो, प्रमाद नही करना चाहिये। तुम उद्यमशील बनो सारे, अन्याय पक्ष तजना चाहिये । श्री वीतराग की वाणी से, जो सज्जन बेमुख रहते है। वह जन्म मरण संसार चक्र मे, पड़े सदा दुख सहते हैं ।। सम्प सुमति का साथ छोड़, सर्वस्व अपना खोते है। तो जान बूझकर वह नर, अपने राह मे कांटे बोते है ।
दोहा यथा नाम कुबेर का, गुण थे तदनुसार ।
किन्तु घर की फूट ने, किया सर्व सुख छार ।। दिवानाथ यदि भानु है, वह भी जगन्नाथ कहाता था। मानिन्द रजनी के शत्रुदल, मुह देखत ही भाग जाता था। मानिन्द रवि की किरणो के, आधीन हजारों राजा थे। निःसन्देह थे भिन्न भिन्न, पर सदा हुक्म के ताबा थे। वह ज्योतिषियों का इन्द्र है, तो यह नरेन्द्र कहलाता था। उसका भ्रमण व्योम, सरोवर मे यह दिल बहलाता था ।। वर्णादिक स्वाधीनभोग, उपभोग किसी की कमी नही। स्वास्थ्यादि दश विध सुरख पूर्ण, था समान कोई धनी नही ।। और एक अनोखी विद्या जो, आशाली कहलाती थी। चहुं ओर कोट था ज्वाला का, शत्रु की पेश न जाती थी।