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सीता भामण्डल मिलन
दोहा (कवि )
भ्रात विरह का शल्य सब, सीता का हुआ दूर । फूली न समाती अंग में, मिला यह सुख भरभूर || मिला देख भाई सीता की खुशी, का न कोई पार रहा । श्री रामचन्द्र जी भामंडल को, देता अतितर प्यार रहा ॥ निज हाथ शीश धर सीता ने, भामंडल को आशीष दिया । चिरंजीव रहो ए भाई, अब तक तैने कहां वास किया || फिर मिथिला नगरी रामचन्द्र ने, झट यह खबर पहुंचाई है । यह सुनते ही वृतान्त जनक, और साथ विदेहा आई है || देख पुत्र का मुख राजा का, हृदय कमल प्रकाश हुआ । ग्रीष्म अन्त श्रावण मे, जैसे सब जगल मे घास हुआ || भामंडल ने मात पिता के, चरणन मे शीश झुकाया है। निज सुत को देख दम्पति के, हृदय में आनन्द छाया है ॥ उस खुशी को कैसे बतलावे, न भाव कथन मे आया है। न शक्ति यहाँ लेखनी की, सर्वज्ञ देव ही ज्ञाता है ॥ नृप चन्द्रगति ने भामंडल को, रथनुपुर का राज्य दिया । आप लिया संयम नृप ने, तप जप से नाम काज किया || ष्ट कर्म संहारण को, शुभ भाव सदा ही वर्ताये । अहो भाग्य उस प्राणी का. जो संयम मार्ग को चाहे ॥
दोहा
आनन्द मंगल हो गया, पहुॅचे निज निज धाम | जनक भूप का सिद्ध हुआ, मन बांछित सब काम ॥ सत्य भूति ज्ञानी मुनि, शुभ चारित्र विशाल । शासन के श्रृंगार है, षट् काया प्रतिपाल || विधि सहित कर वन्दना, बोले दशरथ भूप । पूर्व जन्म का हे प्रभु, वर्णन करो स्वरूप ॥
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