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रामायण
रिसूदन नाम धरा मेरा, फिर जाति स्मरण ज्ञान हुआ । लख करके पूर्वभव अपना, संसार से मुझे वैराग्य हुआ ।
दोहा
मुनि वृत्ति धारण करी, जनक की आज्ञा लेय ।
ज्ञान प्रथम धारण किया, फिर तप जप में चित्त देय ॥ पॉच सुमति और तीन गुप्ति का दिल मे ध्यान टिकाया है । और महाघोर तप अग्नि मे, बहु कर्म समूह खपाया है ।
अब अष्टम स्वर्ग मे हुआ, देव उपमन्यु नाम धराता हूं । अब सुनो हाल राजन् अपना, तेरा भी हाल सुनाता हूं ॥ तैने मर अजगर योनि लई, फिर दावानल मे भस्म हुआ । जा नर्क दूसरी में पहुॅचे, वहाँ कुम्भिपाक मे जन्म हुआ ॥ तू निकल नर्क से भूप हुआ, अब सालीरत्न कहाता है । फेर नके मे जाने का यह क्यो सामान बनाता है || पाया देव से बोध नृप ने, पाप कर्म सब छोड़ दिया । फिर सूर्ययश पुत्र सहित, दुनिया से दिल मोड़ लिया || निज 'कुलनन्दन' को दिया राज्य, दोनो ने संयम धार लिया । और स्वर्ग सातवें महा शुक्र में, जिस्म वैक्रिय सार लिया ||
दोहा
स्वर्ग सातवें भोग कर, सुर सुख प्रति विस्तार । सूर्ययश आकर हुआ, दशरथ भूप उदार ॥ रत्नमाली आकर हुआ, जनक भूपति यह । कनक जनक भाई भला, उपज्या सहज स्नेह ||
मनि नन्दी घोष ने ग्रैवेग में, भोगे सुर सुख अति भारी । सो सत्य भूति निर्ग्रन्थ हुआ मै, चार ज्ञान महाव्रत धारी ॥