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राजताज
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दोहा (दासी) सत्य सभी मैने कहा, कर तेरा अनुराग।
बार-बार तुझ से कहूं, इस गफलत को त्याग ।। इस समय यदि प्रमाद किया तो, फिर पीछे पछतावेगी। भरत पुत्र के विरह मे फिर, रो रो कर समय बितावेगी । तू स्वामिन है मै दासी हूँ, इस कारण कहना पडता है । और भरतकुंचर का मोह रानी, मुझको भी आन जकड़ता है ।।
गाना १४ (दासी का) (रागनी-तीन ताल) रानी तुझको नही मन, ज्ञान खबर । स्थायी--- अभी शहर मे पिटा ढिंढोरा, राज तिलक का समय दुपहरा ॥ खुशियो मे सब अवध नगर । रामचन्द्र को राज्य मिलेगा, तख्त नशीनी ताज मिलेगा। धूम मची कर देख नजर । कहे दशरथ मैं संयम धारू, भरत कहे मै संग सिधारू । फिर रानी तेरी नहीं कोई कदर । सोच यत्न कुछ करले रानी, आलस्य मे क्यों पड़ी दीवानी ॥ तू भरत से करले आज सबर ।
दोहा सुन कर रानी के वचन, भूल गई रंग चाव।
विरह पुत्र का ना बने, सोचन लगी उपाव ।। लगी अक्ल भ्रमण करने, कोई ढग नजर नहीं आता है ।। विरक्त हुवे नृप नहीं रह सकते, सोचा सुत भी जाता है। जो वर था मिला स्वयम्वर मे नप के भण्डार रखाया है। अद्भुत यह ढंग निराली अब, लेने का मौका आया है।