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रामायण
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अपूर्व प्रेम स्वाभाविक है, जिस कारण लक्ष्मण जाता है ।। क्षमा करो अपराध सभी, अविनीत पुत्र दुख दानी का । केवल एक साथ राम के है, अाधार मेरी जिन्दगानी का ।।
दोहा (दशरथ) विनयवान् मेरे कुवर, नहीं हमारी बात । किन्तु रो रो मर जायेगी, बड़ी तुम्हारी मात ।।
रहनेको समझाया बहुत भूपाल ने हर बार है।। लेकिन न माना एक भी, सुमित्रा का सुकुमार है। मस्तक झुका कर पिता का, फिर वीर लक्ष्मण चल दिया । मात सुमित्रा पास आ, प्रणास चरणों मे किया ।
दोहा (लक्ष्मण) माता खुश हो पुत्र के धरो शीश पर हाथ ।
जाता हूँ वनवास में मात भ्रात के साथ ।। हे मात ! ज्ञात है ही तुम को, दुष्कर बिन राम मेरा जीना बस कल नहीं पड़ती दर्श बिना, फिर कहां रहां खाना पीना ।। मै तन मन से वन में भाई का, निशदिन हुक्म बजाऊंगा। जहां गिरे पसीना भाई का, वहां अपना रक्त बहाऊंगा ॥
भिलो जल्दी से जाकर, करो सेवा मन लाकर । खुसी तन मन है मेरा, बड़े भाई की करे सेव निर्मल हृदय है तेरा ।।
दोहा (सुमित्रा) धन्य धन्य मेरे सुत के हरि, शूर वीर रणधीर । निर्मल है बुद्धि तेरी, पान किया मम क्षीर ॥