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रामायण
जव चरण राम ने बाहर किया, सहसा सन्नाटा छाया है। तव पत्थर दिल नरनारी के भी, जल नेत्रो में आया है। व्यापार शीघ्र सब बन्द हुआ, क्या दफ्तर और कचहरी है । नयनो की माला खड़ी हुई, चले राम करी न देरी है । मन्त्री और राज कर्मचारी सब, पीछे है हज्जूम बड़ा। और आगे का कुछ पार नहीं, सब जन समूह अति अड़ा खड़ा । सब नत मस्तक हो खड़े हवे, तन मन से सेवा चाहते है। दक्षिण कर से स्वीकार राम, आगे को बढ़ते जाते हैं । बाजार दोतर्फी छज्जो पर, अगणित माताएं बहनें खड़ी। नयनों से ऑसू बरसा रहे, जैसे श्रावण की लगी झड़ी।। यह दृश्य देख कैकेयी रानी का, हृदय कमल उछलता है। बस मौन चित्र की तरह खड़ी, मुख से नहीं बोल निकलता है ।।
आश्चर्य सीता की खुशी को, देख कर नरनार हैं। मन ही मन में कैकेयी, को दे रहे धिक्कार हैं। महा जन समूह नरनार का, सिया राम संग चलने लगा। तब देख कौशल्या कुवर, यह हाल यू कहने लगा ।। -
राम शिक्षा
दोहा (राम) नेत्रों से जल बहा रहे, बनते क्यों नादान ।
निष्कारण तुम खुशी में, लाये आर्तध्यान ।। क्यो यह आर्तध्यान, सैर मैं तो बन कीं जाता हूं।' तुम जाओ वापिस अवधपुरी, मैं सबको समझाता हूं ।।