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रामायण
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पृथ्वी पानी वायु अग्नि क्या, वनस्पति सोहं सोहं । तिर्यच नारकी देवगति, सोहं सोहं सोहं सोहं ॥ जलचर थलचर खेचर उरपर भुजपर जाति सोहं सोह । नरजन्म नन्ति वार मिला, नहीं मिली सुमति सोहं सोहं ॥ सच्चिदानन्द जो परमात्म, सोहं सोहं सोहं सोहं । कर्मान्तर फक्त पड़ा हुआ, सोह मोह सोहं सोहं ॥ पुण्य सहायक श्रात्म का, निर्जरा फेर हो कर्मों की । सम्यक्त्व शुद्ध जब श्रा जावे, निवृत्ति होय सब कर्मो की ॥ जब सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र, शुद्ध जीव के होते है वारूद क्या दृण्ड रत्नवन् बन, कर्मो के वंश को खोते है || बस लीन जाप मे हो जावो, यह मन्त्र है आनन्द पाने का । कर्तव्य न छोड़ कभी अपना यह समय फेर नहीं आने का ||
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व चलते है य भीलनी हम, किसी और को समझायेगे । या 'शुक्ल' ध्यान मे लीन वने, निज आत्म ध्यान लगायेगे || देकर शुभ ज्ञानामृत मुझको, वह महा तपस्वी चले गये । तब शस्त्र फैक दिये मैंने, जब दुष्ट भाव सब चले गये ।
दोहा
सदुपदेश देकर मुनि, कर गये उग्र विहार | उस दिन से मुझको, प्रभु मिला ज्ञान का सार ॥ जब मैंने निज सम्बन्धी जन को, यह शोभन उपदेश दिया । किन्तु कर्मोदय से सबने, उल्टा ही उपदेश लिया ॥ मुझ को पंगली कह कह कर, सम्बन्ध सभी ने छोड़ दिया || और भारी कर्मी समझ उन्हें, मैने निजमन को मोड़ लिया । किसी आये गये मुसाफिर को, मै सावधान कर देती हूँ ॥ पुरुषार्थ करके अपना, यह मै, उदर नित्य भर लेती हूँ |
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