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रामायण
आत्म मे जग नाटक देखो, सोह-सोह कर निज लेखो। परमात्म सम जिसको मानो, कर्म मैल का अन्तर जानो। सच्चिदानन्द रूप अविनाशी, प्राप्त कथित शास्त्र मे भापी। सप्तम भक्ति यह कही अनूप, जानो इस विध आत्म स्वरूप । जो आत्म संतोप उसी मे, राग न द्वेप न मोह किसी मे । मन अरु माया लोभ से डरना, परहित जीना पर हित मरना ॥ देश-धर्म हित अर्पण करना, लो अप्टम भक्ति का शरणा। मन बच काय सरल वरताओ, विपम भोगी कभी भूल न लावो। सत्य धमे लिये शीश चढ़ा, निमेल श्रेणी पर चढ़ जाओ। करुणा भाव हृदय से लाओ, पर हित कारण प्राण लगाओ ।। नवमी भक्ति इस विध मानो, शोभन पन्थ मुक्ति का जानो ॥
दोहा
नवधा भक्ति सुन हुई, सुधर्मिका खुशी अपार । पुण्य उदय से कर लिये, सभी वचन स्वीकार ।। श्रीरामचन्द्र जी जव, हुव चलने को तैयार । कहन लगे यो भीलनी, से मृदु वचन उचार ।।
___ दोहा ( राम ) वालिखिल्य नृप का पता, यदि 'तुम्हे कुछ होय । तो हमको वतलाइये, पुण्य तुम्हे स्वच्छ होय ।। - दोहा (भीलनी) पन्द्रह सोलह साल की, पूछी आपने बात ।
वालिखिल्य नृप कैद में, रहता है दिन रात ।। किन्तु मुश्किल है महाराज, वालिखिल्य को छुड़वाना। नृप वालिखिल्य को वहां पीसना, पड़ता है कुछ दाजा भी ।।