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यक्ष सेवक
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छन्द विचार तब मन मे उठा, क्या ? माजरा नायाब है। सो रहे या जागते, या आ रहा कोई ख्वाब है ।। सोये थे हम तो अरण्य मे, १ आती नजर क्यो अवध है। रूप रंग सब नगर के, पड़ता सुनाई शब्द है ।। इतने मे सम्मुख आ खड़ा, वर यक्ष वीणा धारके । देख विस्मित राम को, यो बोला सुर उचार के ॥
दोहा-(इम्भकर्ण) नाथ यह सब मैंने रचा, महल नगर श्रावास ।
इम्भकर्ण वर यक्ष है, तुम चरणों का दास ॥ पुण्यवान का पुण्य साथ, जंगल में मंगल होता है। पुण्यहीन को मिले न कुछ, नगरो मे फिरता रोता है। यक्ष करें जिनकी सेवा, सब पूर्व पुण्य फल पाया है। - इस जंगल मे कपिल याज्ञिक समिधा लेने आया है।
दोहा सहसा एक तूफान ने, कपिल लिया उड़ाय ।
देव कृत जो नगर था, डाला वहाँ पर जाय ।। यहाँ नूतन नगरी देख कपिल को, आश्चर्य अति आया है। यदि मिले कोई पूछे उससे, मन मे यह भाव समाया है। एक यक्षिणी नारी रूप मे, नजर सामने आई है। फिर पास गया विप्र उसके, मन की सब कथा सुनाई है।
दोहा, (कपिल ) क्या तुमको भी कहीं से, उठा लाया तूफान । या इस नूतन नगर मे, है तेरा स्थान ।।