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वनमाला
३१७ wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrry सुनी शोभा थी लक्ष्मण की, बालपन से ही लड़की ने । पति इस जन्म का लक्ष्मण, यही दिल बीच ठानी थी ॥२॥ भेद रानी के द्वारा सब, मिला पुत्री का राजा को । ठीक है लखन संग शादी, यही सब दिल समानी थी ॥३॥ राम लक्ष्मण गये बन में, सुना जब हाल राजा ने । लगा ब्याहने पुरेन्द्र नृप को, चढ़ती जवानी थी॥४॥ लगी सोचन वह बनमाला, करून और संग शादी। पति बस एक होता है, तृण सम जिन्दगानी थी ॥५॥
छन्द इन्द्रपुर पुरेन्द्र भूप से, ब्याहने की नृप मंशा करी। लक्ष्मण बिना ब्याहूँ नही, पुत्री ने यह मन मे धरी ।। जिसको दिया न्यौता पिता ने, एक दिन वह आयगा। क्या बनाऊंगी मै फिर, यह धर्म मेरा जायगा। इससे अच्छा प्राण अपने, खत्म पहिले ही करू। जंगल में जा वट वृक्ष ऊपर, ला गले फॉसी मरू॥
रात को ले हाथ मे, सामान महलो से चली। · पास पहुँची वृक्ष के तो, कौमुदि रजनी खिली ॥
तल्लीन थी निज ध्यान मे, कुछ भी नजर आता नहीं। थे अतुल सुख सब तुच्छ, लक्ष्मण के बिना भाता नहीं ।
चौपाई राम सिया निद्रा गत सोवें । लक्ष्मण जागे दसो दिस जावें। देख लक्ष्मण राजदुलारी । चन्द्र बदन मुख रूप अपारी॥
दोहा लक्ष्मण मन में सोचता, रूप नारी का खास । या वन की देवी कोई , बट पर जिसका वास ।।