________________
३१८
रामायण
The
सच्चे मोती हेम जवाहिर, से पोशाक जड़ी भारी । थी रवि किरणो के मानिन्द, मस्तक पर शोभन उजियारी ॥
।
यह क्या कोई बिजली टूट पड़ी, जो नही समाई अम्बर में । मानिन्द सिया के आकृति, जैसे थी खास स्वयम्वर में ॥ वह शशि एक तो चढ़ा व्योम, दूजा जल में प्रतिबिम्ब पड़ा । दोनो को इसने मात किया, मैं देख रहा हॅू खड़ा खड़ा ॥ अनमोल गोल बिन्दी मस्तक पर अपनी चमक दिखाती है। क्या सांचे में हैं ढला जिस्म, इन्द्राणी भी शरमाती है ॥
3
दोहा
बनमाला बट पर चढ़ी, पीछे लक्ष्मण लाल । जो भी कुछ करने लगी, देख रहा सब हाल | बांधा रस्सा वट टहनी के, कर फांसी आकार 1 बनमाला कहने लगी, स्वर कुछ मन्द उचार ॥ बिना सुमित्रानन्द के सभी पित। और भ्रात | अब न तो परभव मिले, करती हॅू निज घात || मैसिवा लखण न बरू और को, अपने प्राण गवांती हूं । परावे पिता खास इन्द्र को, उसको भी नही चाहती हूँ || कौन चीज फिर अन्य मनुष्य, इस कारण फॉसी खाती हूँ । इच्छा नही मुझको जीने की, इस तन की बली चढ़ाती हूं ॥
!
दोहा
पाश गले मे डालकर, मरने को हुई तैयार | तुरन्त न लक्ष्मण ग्रही, बोले वचन उचार ॥ जिसकी इच्छा तुझे भामिनी खड़ा सामने तेरे है । कर्तव्य तेरा कायरपन का, बिल्कुल पसंद न मेरे है ॥