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यत सेवक
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। लक्ष्मण ने समझाया बहुत, माना नहीं चांडाल है ।
लखन का भी हो गया, गुस्से से चेहरा लाल है। । पकड़ कर ऊपर उठा, करके किया उपहास है। भयभीत होके महा कायर ने पाई त्रास है ।।
दोहा रोने के सुनकर शब्द, आ पहुँचे नर नार ।
भेद समझ देने लगे, उसको सब धिक्कार ।। फिर बोले दोष क्षमा करदो इस पामर की नादानी का। कही नही दूसरा मनुष्य कोई. क्रोधी है इसकी शानी का ।। देकर विश्राम पिलाया पानी, कौन दोष शुभ ध्यानी का। है आदत से लाचार कसे मत गिला जरा अज्ञानी का ।।
दोहा छुड़ा दिया श्री राम ने, करुणा दिल मे धार । फिर आगे को चल दिये, पहुंचे बन मंझार ।।
यक्ष सेवक अब दूसरी अटवी मे आये, घनघोर भयानक भारी है। आषाढ़ महीना लगते ही, जहाँ लगा वरसने वारी है। एक वट का वृक्ष विशाल देख, श्री राम ने आसन लाया है। श्रीराम लखन का तेज देख, वटवासी सुर घबराया है ।।
दोहा . वटवासी वहाँ देवता, पाया मन मे त्रास । यक्षो के सरदार पे, गया छोड़ निज वास ।।