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रामायण
करवाया जलपान प्रेम से, आसन बिछा रही है । करो यहां विश्राम क्योकि, तबियत घबराय रही है ॥ विद्यावान चहुं ओर सहज, नहीं पानी मिले कहीं है । जो कुछ इच्छा करू' सभी, हाजिर यह बता रही है ।
दौड़
उधर से घर मालिक आया, देख गुस्सा तन छाया । पड़ा मस्तक पर बल हैं, स्त्री से यूं लगा कहन पति बनकर भूत शक्ल है ||
दोहा
मति हीन तेरी हुई, तज दई आन और शर्म । धर्म भ्रष्ट सब कर दिया, अग्निहोत्र सुकर्म ॥ अग्निहोत्र सुकर्म सभी फल पानी बीच बहाया । जात पात की खबर नहीं, घर मे यह कौन बैठाया ॥ अपवित्र हो गये बर्तन, क्यो पानी इन्हें पिलाया | फूटे मेरे भाग्य तेरे संग, जिस दिन व्याह कराया ||
दौड़
निकल जा मेरे घर से, उडा दूर सिर को धड़ से । तेरा सिर चकराया है, वलती ले लकड़ी चूल्हे से मारन को धाया है ॥
छन्द
स्त्री भयभीत हो, सीता की शरण में आ गई। आगे सिया हो गई खड़ी, पीछे उसे बैठा लई ॥ दुष्ट फिर भी न टला, सीता लगी दिल कांपने देख हाल अनुज यह, आकर खड़ा हुआ सामने ॥