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________________ ३१० रामायण करवाया जलपान प्रेम से, आसन बिछा रही है । करो यहां विश्राम क्योकि, तबियत घबराय रही है ॥ विद्यावान चहुं ओर सहज, नहीं पानी मिले कहीं है । जो कुछ इच्छा करू' सभी, हाजिर यह बता रही है । दौड़ उधर से घर मालिक आया, देख गुस्सा तन छाया । पड़ा मस्तक पर बल हैं, स्त्री से यूं लगा कहन पति बनकर भूत शक्ल है || दोहा मति हीन तेरी हुई, तज दई आन और शर्म । धर्म भ्रष्ट सब कर दिया, अग्निहोत्र सुकर्म ॥ अग्निहोत्र सुकर्म सभी फल पानी बीच बहाया । जात पात की खबर नहीं, घर मे यह कौन बैठाया ॥ अपवित्र हो गये बर्तन, क्यो पानी इन्हें पिलाया | फूटे मेरे भाग्य तेरे संग, जिस दिन व्याह कराया || दौड़ निकल जा मेरे घर से, उडा दूर सिर को धड़ से । तेरा सिर चकराया है, वलती ले लकड़ी चूल्हे से मारन को धाया है ॥ छन्द स्त्री भयभीत हो, सीता की शरण में आ गई। आगे सिया हो गई खड़ी, पीछे उसे बैठा लई ॥ दुष्ट फिर भी न टला, सीता लगी दिल कांपने देख हाल अनुज यह, आकर खड़ा हुआ सामने ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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