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रामायण
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सिवाय देव अरिहन्तदेव, दूजा नहीं चित्त लगाऊंगा। निग्रन्थ गुरु के बिना नहीं, किसी अन्य को शीश झुकाऊगा ॥
यावज्जीव पर्यन्त काम कोई, दुष्ट नहीं दिल मे धारू । शुभ धर्म हेत तन मन धन, इज्जत राज्य न्योछावर करडारू॥ यह लिया नियम शुभ धार भूप ने मुनि को शीस झुकाया है। झट चरणो मे प्रणाम किया, फिर राज सभा मे आया है। फेर विचार किया ऐसा, यदि सिहोदर सुण पावेगा। इस मेरी कठिन प्रतिज्ञा पर, चह भूप अति अझलावेगा। यदि शीस झुकाऊ राजा को, तो नियम टूट मम जावेगा।। अब कौन उपाय करू इसका, जब मेरे सन्मुख आवेगा ।।
आगार के उपयोग विन, हुई सोच यह भूपाल को । बनवा लई इक मुद्रिका, उस दम बुलवाय सुनार को । नाम श्री अरिहन्त अंकित, पहिन अंगुली में लई। यही बना कर ढङ्ग नृप ने, धीर निज मन को दई । जब समागम हो कहीं, अरिहन्त गुण हृदय धरे। हस्त मस्तक को लगा, प्रणाम नृप ऐसे करे । एक व्यक्ति ने सभी यह, रहस्य एक दिन पा लिया। और पास सिंहोदर के जाके, हाल सब बतला दिया ।।
दोहा वज्र कर्ण के विरुद्ध सब, दिया चुगल ने भाष।। बोला अब तज दीजिये वज्रकर्ण की आश ॥ ' ..
(पिशुनक) तुम्हे नहीं वह नमस्कार, अरिहन्त देव को करता है। पागल तुम्हे बना रखा, जिज वक्र भाव दिल धरता है ।।