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रामायण
घेरा नगर अनूप हाल, अब कहूँ बैठकर सारा । मुझे मिले श्रीराम और, संशय मिट जाय तुम्हारा ॥ खेलने लिये शिकार एक दिन, नृप उद्यान सिधारा । खड़ा देख 'मुनि जैन' सामने, मुख से वचन उचारा ॥
दौड़
खड़े किस कारण बन मे, तज़ा क्यो घर यौवन में । - नाम क्या कहो तुम्हारा, महाकष्ट क्यो भोग रहे क्या दिल में ख्याल विचारा ॥
दोहा
मुनिराज कहने लगे, राजन सुनकर गौर । धर्म काटने के लिये, करे तपस्या घोर ॥
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प्रीतिवर्धन नाम मेरा, व्यावहारिक शब्द कहाता है | सव छोड़ गंठ निग्रन्थ बने, आनन्द ज्ञान मे आता है || जो द्विविध धर्म कहा सर्वज्ञ ने, उसकी तुमको खबर नही । निरपराधी को हनना यह, क्षत्रिय कुल का धर्म नही ॥ अब सुनो जरा कर ध्यान धर्म, द्विविध का तुम्हे बताते हैं | सम्पूर्ण धर्म कहा सुनियो का, पहिले सो दर्शाते है | पांच सुमति और तीन गुप्ति को, हरदम हृदय रखना है । कुछ सरस नीरस जो मिले आहार, समप्रणामे भखना है 11 शुद्ध चार महाव्रत धार मूल गुण, चार कषाय निवारत हैं । सब कष्ट सहे सहर्ष सदा, पर कार्य मुनि संवारत है ॥ उत्तर गुण के धारक त्यागी, आत्म ध्यान लगाते हैं । शुभ तप जप कर अरि कर्म काटकर, अक्षय मोक्षपद पाते हैं । अब आगे सुनो ध्यान लाकर, ' जो सर्वज्ञ का फरमाना है । कुछ गृहस्थ धर्म का भी घृत्तान्त, राजन तुमको बतलाना है ॥
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