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रामायण
दोहा तुम तीनों की कर लई, परीक्षा मैं बहुविध। सर्वज्ञ देव की कृपा से, होगा कार्य सिद्ध ।। ।
आपस मे मिल जुलकर रहना, एक दूजे का हित चाह करके। सीता को कभी अकेली ना, तजना, गफलत में आकरके ॥ विश्वास नहीं किसी का करना, चाहे सौ-सौ बात बनावे कोई ना गुस्सा लक्ष्मण पर करना, चाहे नुकसान हो जाय कोई ॥ सीता को हरदम खुश रखना, इसको न उदासी आवे कभी। विश्राम वहां पर कर देना, सीता की इच्छा होवे जभी ।। निद्रा समय एक का पहरा, नियमबद्ध होना चाहिये । दोनो को क्रम से आपस मे, जागना और सोना चाहिये। आवश्यक प्रतिक्रमण का कभी समय चुकाना ना चाहिये। सामायिक संध्या नित्य कर्म, का समय भूलाना ना चाहिये ।। कम खाना और गम खाना, इनको हृदय धरना चाहिये।
और सभी कार्यों से पहिले, परमेष्टी का शरना चाहिये ।। तीनो यहां से जाते हा, तीनों खुश हो वापिस आना। यदि इस में त्रुटि होगी तो, मुझको न कोई मुख दिखलाना ।। कोई कष्ट आन कर पड़े तो, बन गभीर वीरता से सहना । गौरव हीनता की बाते, मुख से कभी भूल नहीं कहना ।। मैदान क्षत्रियों का घर है, जंग विग्रह से नही डरना है । चाहे संसार उलट जावे, पर पीछे कदम न धरना है ।। बेटा मेरी कुक्षी और, धारों को नहीं लजा देना। न्याय नीति दया धर्म देश, कुल सब का भाग जगा देना ।। सब गुण सागर जगत उजागर, बर्हितरे कला के माहिर हो । क्या शिक्षा देऊ बेटा, खुद शूर वीर जग जाहिर हो ।