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रामायण
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अब यथायोग्य प्रणाम किया, फिर आगे को चल धाये हैं । यह विरह देख श्रीराम का, सब नयनों में जल भर लाये हैं ।। हो गये लुप्त जब दृष्टि से, फिर पीछे चरण हटाये हैं। ( सब बैठ यान में तेज गति से, पुरी अयोध्या आये हैं । यहाँ आदि अन्त पर्यन्त भूप को, सभी वार्ता बतलाई । होगया वचन पूरा ऋण उतरा, खुशी बदन मे भर आई ॥ फिर उसी समय अति धूमधाम से भरत पुत्र को राज दिया । और अपना फिर इस दुनिया से, राजा ने चित्त उदास किया ||
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छन्द
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प्रजा को पुत्रों की तरह, अति प्रेम से नृप पालता । देव हैं अरिहन्त और, निर्ग्रन्थ गुरु निज मानता ॥ 'धर्म श्रद्धा है दयामय, ध्यान लेश्या शुभ सभी । वीतरागी कथित शास्त्रों में, न है शंका कभी ॥ सूर्यवंशी सुयश पाया, नाम उज्ज्वल कर दिया । वचन पूरा कर पिता का, कष्ट सारा हर लिया || देख शोभा कुमर की, राजा का हृदय सर्द है । पूरा ही कर दिखला दिया, पुत्रों का जो कुछ फर्ज है ।
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दशरथ दीक्षा दोहा
संयम लेने के लिये, दशरथ हुआ तैयार । हाथ जोड़ कहने लगी, आन कौशल्या नार ॥
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कोश० -- सुत राम गये वनवास नाथ, तुम भी संयम ले जाते हो । क्यों बनें एकदम निर्मोही, कुछ ख्याल नहीं दिल लाते है |