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बनवास कारण
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भरत के शीस शोभे ताज, मै शोभूगा बन जाकर। पिता शोभे मुनि दीक्षा, जन्म अपना सुधारेगे ॥४॥ राज्य धन मित्र सुत दारा, मिले कई बार प्राणी को। है दुर्लभ धर्म का मिलना, इसी से तन शृङ्गारेगे ॥५॥
दोहा सुना कथन जब राम का, ठण्डा हो गया जोश । गूढ़ रहस्य को सोच कर, रहे लखन खामोश ।। मन ही मन मे सोचकर, निजको किया उपशांत ।
समय भाव को जानकर, बोले अनुज इस भांत ॥ लक्ष्मण-मुझे फेर क्या राम खुशी से, राज्य छोड़ बन जाता है।
तो फिर खाना अवधपुरी का, हमको भी नहीं भाता है । झगड़ा और बढ़ा कर सब का, दिल ही सिर्फ दुःखाना है। यदि दूल्हा ही निज सिर फेरे, फिर किस का व्याह रचाना है।
दोहा यही सोच के लखन फिर, गये पिता के पास । नमस्कार कर चरण मे, कहा इस तरह भाष ।।
दोहा (लक्ष्मण) पानी मे मछली सुखी चकवा चकवी साथ ।
राम चरण लक्ष्मण वहां ज्यो रवि साथ प्रभात ।। पिता मुझे आज्ञा दीज, मै राम संग वन जाऊंगा। सेवा होगी भाई की, दुःख मै निज शीस उठाऊंगा। ताज मुबारिक भरत वीर को, आपका ऋण उतारा सिर से। तात मात खुश हम भी खुश, जैसे किसान खुश जलधर से ॥ छिन पल विरह राम का मुझ से, पिता सहा नहीं जाता है।