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वनवास कारण
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पान किया जो क्षीर मेरा, कर्तव्य पालन कर देना। तन बेशक लग जाय, किन्तु नहीं दगा भ्रात को देना। पड़े कष्ट जो आन कोई, आगे हो कर सह लेना। मानिन्द पिता के रामचन्द्र, माता सीता को कहना ।।
गाना नं. २६ . (सुमित्रा का लक्ष्मण को उपदेश) प्रेम हृदय नही जिसके, वह शत्रु न भाई है। प्राण चाहे चले जाये न छोड़े संग भाई है ।। नाश दुनिया सभी जानो, शेष इसमे न कोई है । चले नेकी वदी सग में, जिस्म की भी सफाई है ॥२॥ सहारा कष्ट मे देना, यह है कर्तव्य भाई का। यदि आंखे चुराये तो, लगेगी मुह पे काई है ॥३॥ करो तन मन से बन जाकर, मेरे सुत राम की सेवा । मेरी शिक्षा कुवर तूने, यदि हृदय जमाई है ॥४॥ रहा अब तक तो तू भाई मगर चाकर हो अब रहना। हुकम सियाराम का लेना, कुवर मस्तक उठाई है ।।५।।
दोहा ( लक्ष्मण) माता तन मन खुश हुआ, सुने तुम्हारे बैन । करू मैं सेवा राम की, जैसे मस्तक नैन ।। जैसे माली पौधे को, जल देकर खुश रखता है। या किसान के लिए समय पर, बादल आन बरसता है। ऐसे खुश रक्खू भाई को, जैसे माता फूल खिला। वह चीज नहीं दुनिया मे जैसा कि मुझ को वीर मिला ॥ जब तक जीता हूँ भाई को, मै कष्ट नहीं पहुंचन दूंगा। पहिले होगो आज्ञा पालन, कुछ मन मे नही सोचन दूंगा।