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राजताज namam anamaanan
क्षत्रिय अपना वचन सदा, सब पूरी तरह निभाता है। महाशूर वीर नहीं हटे कभी, चाहे अपने प्राण लगाता है ।। कैसे करू वचन-पूरा अब, यही मै ध्यान लगाता हूँ। यहां बैठा दुःख मे लीन हुआ, इस जीने से घबराता हूँ ।
दोहा (राम) राज्य नकारी चीज पर, इतने है हैरान । वर देने को हे पिता, मांगो हाजिर प्राण ।।
गाना नं०१७ (रामचन्द्र) पिता मात का कर्जा, सिर से उतारना जी | स्थायी तुम गल जिस पर माला पाई, फिर दल मे आ जीत कराई। इससे बढ़कर और कोई उपकार ना जी ॥१॥ विपत समय मे करी सहाई, बड़ी मात की शूरमताई। जो मांगे दो जरा करो, तकरार ना जी ।।२।। खिला आज यह चमन हमारा, कृपामात की करो विचारा॥ धन्य कैकयी मात सर्व, दुःख टारना जी ।।३।। क्षत्रिय का निज कर्म यही है वचन न तोड़े धर्म यही है। हक बेहक का करो, आप इसरार ना जी ॥४॥ पिता आपने वचन दिया है, राज्य मात ने मांग लिया है। लिये भरत के मुझे, खुशी का पार ना जी ॥५॥ भरत राम दो नहीं पिताजी, क्या नाचीज़ है ताज पिताजी। जैसे मस्तक चक्षु, इन्हे विचारना जी ॥६॥ पहिले भरत को राज तिलक हो, फिर जिन दीक्षा मे निज
दिल दो। शुक्ल ध्यान निर्विघ्न, मोक्ष पदधारना जी ॥७॥