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रामायण
दोहा (दशरथ)
शावास मेरे सुत के हरी, विनयवान रणधीर । तृषातुर को अय कुमर, प्याया शीतल नीर ॥ ग्रीष्म अन्त श्रावण जैसे, या जैसे द्वीप समुद्र मे । शशि चकौर को सुखदायी, या औषधी रोग भंगदर मे || जैसे श्री जिन धर्म जीव को, सुख अनन्त दिखलाता है । ऐसे मुझ को सुखदायी, तू पुत्र राम कहलाता है ।
दोहा
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उसी समय भूपाल ने किया एक दरबार । मंत्रीश्वर बुलवा कर करने लगे विचार ।
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दशरथ - घडी पहर निष्फल मुझको, वर्षो की तरह दिखाते है । अब राज तिलक दे भरत पुत्र के, सिर पर ताज टिकाते है ।। तुम यथायोग्य सब तैयारी करने में अब ना देर करो । व्यवहार सभी यह ठीक बना, स्वतन्त्र हमें भी फेर करो ॥ यह नियत सभी कुछ हुआ, आज वस रानी का वर देते है । सुत भरत अयोध्यापति बना, अब हम जिन दीक्षा लेते हैं ॥ है यही सम्मति रामचन्द्र की, भरत भूप होना चाहिये । और ऐसे पुत्र सुपुत्र के लिये, धन्यवाद देना चाहिये || }
दोहा
राज कुमर प्रस्ताव सुन, बोले भरत कुमार । उदक विलोने से कभी, निकला है क्या सार ॥
दोहा (भरत)
माता को मैं क्या कहूं, मुझे न चाहिये राज । चरित्र आपके संग लू सारू आत्म काज ॥