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बनवास कारण
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पति के तन की छाया हूं, कहे अर्धाङ्गिनी दुनिया । कोई छोड़े धर्म अपना, वह सुख से सो नही सकना ॥२॥ है जब तक दम मे दम मेरा, करू सेवा पति की मैं। लिए परमार्थ जो मरता, कभी वह रो नहीं सकता ॥३॥ न इच्छा राज महलो की, तमन्ना है न कुछ धन की। योग्य सेवा बिना परमार्थ कोई टोह नहीं सकता ॥४॥ झुकाती हूं मैं सिर अपना, आपके सास चरणो मे । अपूर्व लाभ अपना ऐसा, कोई खो नहीं सकता ॥॥
दोहा ( कौशल्या ) बेशक पतिव्रता सती, पति से प्रम अपार ।
नादान पता तुझको नहीं, बन में दुःख अपार ।। यह कोमल बदन वधू तेरा, मक्खन समान ढल जायेगा। ज्येष्ठ भाद्रपद को धूपो से, दिल तेरा घबरायेगा। घोर बड़े तूफान नदी नालो के दुख का पार नहीं। हिसक जन्तु शेर बघेरे चीते हस्ती पार नहीं। तू फेर वहाँ पछतावेगी, जंगल मे सोना धरती का। जहाँ नित्य प्रति आर्तध्यान सहेगी कैसे दुख बन सर्दी का ।। मक्खी मच्छर बिच्छु आदि, दारुण भय वहाँ सर्पो का। विकट पहाड़ बताऊँ दुख मै, कैसे खूनी बर्फी का ॥ मैं बार बार समझाती हूं, अंजाम सोच इन हर्को का। जहाँ थोडे दिन का काम नहीं, दुख भारी चौदह वर्षों का।। फेर पति का पग बंधन, परदेशो से यह नारी है। कोमल गुल बदन वधू तेरा, वह कष्ट झेलना भारी है । शोभनीय फल देख तुरत खग वृक्षो पर छा जाते है। कोई कप्ट न तुम पर आ जावे, यो हम नहीं भेजना चाहते हैं।