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रामायण
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तेरा जो है पति वधू तो, मेरा राजदुलारा है । एक बिन तेरे सूना लगता, रणवास क्या महल चौबारा है। अतुल विरह का दुख मुझको, सुत इन हाथो से पाला है। फिर और मुझे दुख देने को, तूने भी झगड़ा डाला है। बिना यान न चरण कभी, तैंने भूमि पर रखे हैं। फिर अभी दूध के दांत तेरे, बन दुख स्वाद नहीं चक्खे हैं। सारी उमर पति की सेवा, जो कोई नार बजाती है। बस उतना फल एक बार, ससु की सेवा से भरपाती है ।
दोहा (सीता) जैसे बिजली मेघ में, मस्तक मणि भुजंग ।
तन छाया ऐसे ससु, सिया राम के संग ॥ गृहस्थ धर्म का कर्त्तव्य जो पतिव्रत धर्म निभाऊंगी। जो कोई आपत्ति पड़ी आन तो, अपनी जान लगाऊंगी॥ किंचितमात्र भय नहीं मुझको बनचर या और तूफानोंका । अमर आत्मा मरे नहीं मरना तो जिस्म मकानों का ॥ जल मे डूब नही सकती, अग्नि न इसको जला सके । जो निज गुण ज्ञान आत्मा का, शस्त्र न इसको हरा सके। है मिट्टी का यह तन पुतला, मिट्टी मे ही मिल जायेगा। जो कर्म शुभाशुभ किये आत्मा उसे संग ले जायेगा।
गाना नम्बर २५ (सीता का कौशल्या से कहना) मुझे धर बार तज बनवास जाना ही मुनासिब है। पति सेवा में तन मन को, लगाना ही मुनासिब है ॥१॥ लाज रखनी स्वयम्वर की मुझे जाने से मत रोको। सती का धर्म जो कुछ है, निभाना ही मुनासिव है ॥२॥