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रामायण
कष्ट बड़ा बनवास का भय नहीं जिसे लगार । दोनों कुल उज्ज्वल किए सीता उत्तम नार । सीता को समभावने आया सब रणवास । संग अवध की नारियां आकर बोली पास ॥ गाना नं० २६
( सब रणवास और नगर की प्रधान स्त्रियों का सीता को समझाना ) तर्ज - ( छोड़ो न धर्म अपना जब प्राण तन से निकले)
सीता न बन मे जावो रहना यहीं भवन में |
क्यो दुख सहे तू बन के बैठी रहो मन में ॥१॥ मत जा जनक दुलारी सीता ए प्राण प्यारी । क्यों व्यर्थ कष्ट सहती दुखदायी जाके बन मे ||२|| कंकर उपल बड़े है कहीं कांटे ही पड़े है । गरजे है शेर बन मे ॥ ३ ॥ ना कोई भी सवारी ।
दरियायें जल चढ़े हैं पैदल का मार्ग भारी भूलेगी सुध तुम्हारी उस धूप की अग्न में ||४|| अन्न तक नहीं मिलेगा, भूखी का दिल हिलेगा । फल-फूल ही मिलेगा, किसी खास ही चमन में ||५||
दोहा
सुन कर सब ही के वचन, प्रफुल्ल चित्त सिया नार । मृदुमधुर प्रेमालाप से, बोली गिरा उचार ॥
गाना नं० २७ ( सीता का उत्तर )
(तर्ज--- छोड़ो न धर्म अपना जब प्राण तन से निकले )
टोकें न आप मुझको, जाऊँ मैं संग बन में । जहां चरण हों पति के, वहां ही रहूँ
मन में ॥१॥