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सीता भामण्डल मिलन
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सुना हाल जन्मान्तर का, वैराग्य भूप दिल छाया है। फिर अयोध्या मे आकर, नप ने दरवार लगाया है ।
दोहा सुत मित्र पूछे सभी, और बड़े मंत्रीश । भरी सभा के बीच में, भाषण लगे महीश ।।
अस्थिर तन धन संसार मे है, फिर इससे कहो सम्बन्ध ही क्या ।
जिन फूलो ने कुमलाना है, फिर उनकी मस्त सुगन्ध ही क्या ।
प्रकृति का तन बना सभी यह, अवश्यमेव . खिर जावेगा ।
अनमोल समय यह मिला, 'शुक्ल' फिर शीघ्र हाथ नहीं आवेगा। सब राज्य महल द्रब्य दुनिया का, कुछ जाना मेरे साथ नहीं। है यही समय जो निकल गया, दुर्लभ फिर आना हाथ नहीं। यह तृष्णा है आकाश तुल्य, न भरी न भरने पायेगी। अग्नि मे जितना घी डालो, उतनी ही लपट दिखायेगी। जो वस्तु अनित्य संसार मे है, उससे अनुराग बढ़ाना क्या । मिल रहा संखिया जहर समझ, फिर उस भोजन का खानाक्या । हो गया विरक्त अब मन मेरा, संयम व्रत लेना चाहता हूँ। सुत रामचन्द्र को राज ताज, निज कर से देना चाहता हूं।