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रामायण
राजताज
दोहा (भरत) भरत कहे पिताजी सुनो, मै व्रत लू तुम लार । हित न जाने अपना, सो जन मूढ गंवार ॥ पहिला दुख दारूण बड़ा, विरह आपका होय ।
और संसार बढ़ावना, कौन सहे दुःख दोय ।। यह वात शीघ्र ही फैल गई, जैसे चिकनाई पानी पर । दासी ने जो कुछ सुना हाल जा कहा कैकेयी रानी पर ।। रामचन्द्र को राजतिलक, महारानी होने वाला है। और पुत्र तुम्हारा भरत भूपसंग, संयम लेने वाला है ।
दोहा
एक बात है सत्य तेरी, दूजी, बिल्कुल झूठ । क्या कुभाव तेरे हृदय, डालन के है फूट ।। पतिदेव संयम लेंगे, यह बात तो सभी जानते हैं। उत्तराधिकारी राम बनेगे, यह भी सभी मानते है । पर संयम लेगे भरत कुमर, यह किसने तुझे सुनाया है। जिस बात का कोई सवन्ध नहीं, कहकर मम हृदय जलाया है
दोहा दासी तेरी बात का मुझे नहीं इतबार । सिर पैर नहीं कुछ बात का, बांदी मूढ़ गंवार ॥१॥ तू बांदी मूढ़ गंवार सभी, बकवाद करे अपने मन की। यदि फेर मसखरी की मुझसे, तो खाल उड़ा दूगी तन की। क्या तुझको कोई स्वप्न आया, या नशे बीच गलतान हुई। यह भेद समझ में नहीं आता, सुन बात तेरी हैरान हुई ।।