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राजताज
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शत्रुओ ने तुम्हे आकर, युद्ध में जब दवाया था। बनी मे सारथिन प्राकर, दिया तुमको सहारा है ॥२॥ पड़ी में दल मे बिजली सी, चलाई तेग फिर तुमने। हुए काफूर सब शत्र रवि जैसे सितारा है ।।३।। हो खुशी फिर अपने मुख से, कहा मांगोगी सो दूंगा। न तोडू वाक्य क्षत्रिय हूँ, वचन तुमने उचारा है ॥४॥ धरो भंडार मे मैने कहा, प्रीतम वचन लेकर । उऋण होवे मुझे देकर, आप सिर बोझ भारा है ।।५।।
सुनो स्वामी चित्त लाके, वचन दो मेरा चुका के। वचन क्षत्रिय नहीं हारे, जो हारे सो समझ पति, नहीं पहुंचे मोक्ष द्वारे ॥
दोहा दशरथ ) हाँ मैंने था वर दिया, कर तेरा अनुराग । बिना एक चरित्र के, जो मर्जी सो मांग।
(दशरथ) सब ठीक दिलाया याद मुझे, अये रानी तूने आ करके। मै क्षत्रिय हूँ नहीं तोडू वाक्य, सब कहूं तुम्हें समझा करके ।। जो कुछ इच्छा तुझको सब, देने को तैयार हूं मैं। . निष्फल दुनिया मे एक घड़ी, भी रहने को लाचार हूं मैं ।
चौपाई क्षत्रिय कुल रीत यही सुन रानी, वचन हेत तजते जिंदगानी । मेरु समुद्र चले महीमान, शूर, ,वचन जाने. सम प्राण ॥