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रामायण
दोहा अनुचित है तुमने कहा, सुनो जनक भूपाल । क्या हाथ कंकन को आरसी दिखलावें तत्काल ।। वज्रावर्त अरूणावर्त, धनुप अतिशयवन्त ।
यक्षो से सेवित हुये, सुनो भूप मतिवन्त ।। चन्द्रगति
जा रचो स्वयंवर लड़की का, सब उचित भूप बुला लेओ।
यह धरो स्वयंवर बीच धनुष, फिर ऐसे शब्द सुना देओ। सम आयुष्य वाला राज कुमार जो, क्षत्रिय धनुष चढ़ायेगा। पड़े उसी के वरमाला मम, पुत्री वही विवाहेगा। है पक्ष रहित यह बात किसी को, करना चाहिये उजर नहीं। नहीं तो झगड़ा बढ़ जायेगा, इस ढंग बिन होगा गुजर नहीं। एक विना हमारे रामचन्द्र या, कोई भूप चढ़ावेगा। इन्कार नहीं हमको, कोई सीता को वही ले जावेगा। यदि ऐसा न हुआ किसी से, तो पुत्र मेरा ही विवाहेगा। और न होगी बात कोई, चाहे भूमंडल चढ़ आवेगा ।। चलो अभी कुछ देर नहीं, तुमको पहिले पहुंचाते है। जा करो तैयारी जल्दी से, मिथिला नगरी हम आते हैं ।।
दोहा जनक भूप मन सोचता, मुश्किल बनी लाचार । समय क्षेत्र को देखकर, किया यही स्वीकार ।। निश्चित बात करके सभी, जनक दिया पहुँचाय ।
चन्द्रगति ने भी लिये, निज विमान सजाय ॥ चन्द्रगति ने नियत स्थान पर, डेरा आन लगाया है । थे बड़े-बड़े योद्धा संगमे, विद्याधर अति-गर्भाया है।