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सीता स्वयम्बर
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खिलौने को दारक जैसे, श्री राम ने धनुष उठाया है। टहनी सम नमा शरासन, अपर प्रत्यंचा को चढ़ाया है। आकर्ण चाप को खीच राम ने, खाली एक टंकार किया । ज्यो नभ मे कड़के चपला, त्यो महा भयंकर शव्द किया। वज्रावर्तज धनुष दूसरा, लक्ष्मण जी ने उठा लिया।
और खीच राम की तह, एक दम टकारव घनघोर किया। हृदय स्थल कांपे नप जनो के, मूर्छित हो धरणी जाय परे।
नेत्र स्फारित कर देख रहे, आश्चर्य चकित कई होय रहे । चढ़े धनुष दोनो चिल्ले, जयकार बोल रहे नर नारी । करे त्रिदश वृष्टि कुसुमो की, हर्षोल्लासित जनता सारी ।। उसी समय श्रीराम के गल वरमाला सिया ने डाल दई। गद्-गद् हुये जनक राजा, जब मनोकामना पूर्ण हुई ॥
गाना नं. ६
तर्ज-(त्रिताल)
चढ़ा कर धनुष लोक हर्पित किये ।टेका जब चढ़ाया धनुष घोर कड़की गगन, इन्द्रदेव सब हो गये मगन ।
हाँ रचाया स्वयंवर जभी इस लिये ॥१॥ रामचन्द्र के चरणो मे सीता झुकी, हार डाला गले हंसी सूर्यमुखी
दर्श करते ही मै घुट अमृत पिये ॥ २॥ सारंगी बजी लोर में बंसरी, तबला बजने लगा नाची हूरोपरी।
बस धनुष पर ही थी जनक की शर्तये ॥३॥ पुरी इन्द्रो मे फूलों की वर्षा पड़ी, मेघ सावन की लगती है जैसे झड़ी
धनुप सिद्ध रघुवर ने दो कर लिये ॥४॥
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बालक